जैसा कि प्रेम मंदिर की परमाध्यक्ष कांता देवी महाराज ने बताया...
श्रेष्ठ बनने के केवल ज्ञान ही नहीं, सहनशीलता, धैर्य, विवेक और संयम की भी आवश्यकता होती है। गुरुदेव भगवान कहते हैं कि एक बार स्वामी विवेकानंद का एक शिष्य उनके पास आया और उस ने कहा ‘स्वामी जी’ मैं आपकी तरह भारत की संस्कृति, दर्शन और रीति रिवाज का प्रचार-प्रसार करने के लिए विदेश जाना चाहता हूं। यह मेरी पहली विदेश यात्रा होगी, आप कृपा करके मुझे विदेश जाने की अनुमति प्रदान करें और अपना पावन आशीर्वाद दें। स्वामी ने अपने शिष्य को ऊपर से नीचे तक बड़े शांत भाव से कहा, सोच कर बताउंगा।
शिष्य हैरत में पड़ गया और बड़े ही विनम्र भाव से कहा स्वामी मैं आपकी तरह सादगी से देश की संस्कृति का प्रचार करूंगा। मेरा ध्यान किसी भी और चीज पर नहीं जाएगा। स्वामी विवेकानंद ने फिर कहा कि सोच कर बताउंगा। अब तो शिष्य ने समझ लिया कि स्वामी जी उसे विदेश नहीं भेजना चाहते, इसलिए ऐसा कह रहे हैं, लेकिन गुरुदेव की आज्ञा बिना मैं विदेश नहीं जाऊंगा और वह शिष्य वहीं उनके पास ठहर गया। दो दिन के बाद स्वामी ने उसे बुलाया और कहा अब तुम विदेश जा सकते हो, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
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